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एम्स गोरखपुर के अध्ययन से हुआ खुलासा मेलाज्मा में हार्मोन की भूमिका और किफायती इलाज की जरूरत डर्माकॉन 2025 में पेश हुआ महत्वपूर्ण शोध, संस्थान की ED ने दी बधाई
गोरखपुर मेलाज्मा एक जटिल त्वचा रोग है, जिसमें चेहरे की त्वचा पर काले या भूरे रंग के धब्बे नजर आते हैं। यह सिर्फ सौंदर्य से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि इससे मानसिक तनाव, आत्मविश्वास में कमी और जीवन की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। हालांकि, इस बीमारी के लिए कई तरह के उपचार उपलब्ध हैं, लेकिन ये महंगे, लंबे समय तक चलने वाले होते हैं और फिर भी अक्सर सफलता नहीं मिलती।
अब, एआईआईएमएस गोरखपुर में हुए एक महत्वपूर्ण शोध ने मेलाज्मा के कारणों और उसके प्रभावी इलाज को लेकर नए दरवाजे खोले हैं। यह शोध त्वचा रोग विभागाध्यक्ष प्रो. (डॉ.) सुनील कुमार गुप्ता के नेतृत्व में किया गया, जिसमें बायोकैमिस्ट्री विभाग के डॉ. शैलेंद्र द्विवेदी सह-अन्वेषक रहे। यह अध्ययन इंडियन एसोसिएशन ऑफ डर्मेटोलॉजी, वेनेरियोलॉजी और लेप्रोलॉजी (IADVL) रिसर्च ग्रांट से वित्त पोषित था और डर्माकॉन 2025 (जयपुर) में प्रस्तुत किया गया।
संस्थान की कार्यकारी निदेशक (ED) मेजर जनरल प्रो. डॉ. विभा दत्ता ने प्रो. (डॉ.) सुनील कुमार गुप्ता को उनके सफल शोध और प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए बधाई दी। उन्होंने इस उपलब्धि को संस्थान के लिए गर्व का विषय बताया और कहा कि यह शोध डर्माटोलॉजी क्षेत्र में नए और किफायती उपचारों के विकास में अहम भूमिका निभाएगा।
मेलाज्मा को समझने की जरूरत क्यों थी?
मेलाज्मा के इलाज में अब तक हाइड्रोक्विनोन, रेटिनॉइड्स, कॉर्टिकोस्टेरॉयड्स, लेजर थेरेपी और केमिकल पील्स जैसी पारंपरिक विधियों का उपयोग किया जाता है। लेकिन ये न केवल महंगे हैं बल्कि प्रभाव भी सीमित होता है, और बार-बार उपचार की जरूरत पड़ती है।
खासकर निम्न और मध्यम आय वर्ग की महिलाओं के लिए यह इलाज आर्थिक रूप से बोझ बन जाता है। इसलिए, इस रोग के मूल कारणों को समझकर एक किफायती और प्रभावी इलाज विकसित करना बेहद जरूरी था।
शोध में क्या पाया गया?
इस अध्ययन में 208 महिलाओं को शामिल किया गया। इसमें हार्मोनल असंतुलन और मेलनोसाइट इंड्यूसिंग ट्रांसक्रिप्शन फैक्टर (MITF gene) की भूमिका को समझने की कोशिश की गई।
मुख्य निष्कर्ष-
MITF का स्तर मेलाज्मा मरीजों में काफी कम पाया गया, जिससे यह साबित हुआ कि मेलाज्मा सिर्फ ज्यादा मेलेनिन बनने से नहीं, बल्कि त्वचा की कोशिकाओं में कुछ बदलावों से भी जुड़ा है।
इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन के बीच हल्का नकारात्मक संबंध पाया गया, जिससे संकेत मिलता है कि मेलाज्मा में हार्मोनल असंतुलन की भूमिका हो सकती है।
सिर्फ धूप ही नहीं, बल्कि लंबे समय तक इनडोर लाइट में रहने से भी मेलाज्मा बढ़ सकता है।
शोध के आधार पर इलाज में बदलाव की जरूरत-
इस शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि मेलाज्मा केवल एक सतही त्वचा रोग नहीं है, बल्कि यह हार्मोनल असंतुलन और आनुवंशिक कारकों से भी जुड़ा हुआ है। इसलिए, इसके इलाज में बदलाव जरूरी है:
हर मरीज का हार्मोनल प्रोफाइल जांचकर व्यक्तिगत इलाज किया जाना चाहिए।
सिर्फ क्रीम और लेजर थेरेपी पर निर्भर रहने के बजाय हार्मोनल और जेनेटिक थेरेपी पर भी ध्यान देना होगा।
प्रोजेस्टेरोन क्रीम या पैच जैसे टार्गेटेड हार्मोनल ट्रीटमेंट प्रभावी हो सकते हैं।
कम लागत में अधिक प्रभावी इलाज विकसित करने की दिशा में यह शोध एक बड़ा कदम साबित हो सकता है।
महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण सलाह-
मेलाज्मा का सही और सुरक्षित इलाज डॉक्टर से सलाह लेने पर ही संभव है।
बाजार में मिलने वाली महंगी फेस क्रीम्स और क्रीमों का बिना डॉक्टर की सलाह के इस्तेमाल न करें। ये न केवल बेअसर होती हैं, बल्कि कई बार त्वचा को नुकसान भी पहुंचा सकती हैं।
खुद से कोई भी ट्रीटमेंट शुरू करने से पहले विशेषज्ञ से परामर्श लें।
भविष्य में मेलाज्मा के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव संभव
यह शोध डर्माटोलॉजी विशेषज्ञों के लिए एक नई दिशा दिखाता है। अब मेलाज्मा के इलाज में सिर्फ त्वचा पर लगने वाली क्रीमों पर निर्भर न रहते हुए, हार्मोनल और जेनेटिक थेरेपी को भी महत्व दिया जाएगा।
प्रो. गुप्ता ने कहा,
“अगर हम मेलाज्मा के हार्मोनल और आनुवंशिक कारणों को समझ लें, तो इसका इलाज अधिक प्रभावी, सस्ता और स्थायी हो सकता है।"
इस शोध को डर्माकॉन 2025 में काफी सराहना मिली और यह भविष्य में मेलाज्मा के इलाज को नया रूप दे सकता है।
संस्थान की ED ने दी बधाई
एम्स गोरखपुर की कार्यकारी निदेशक (ED) मेजर जनरल प्रो. डॉ. विभा दत्ता ने प्रो. (डॉ.) सुनील कुमार गुप्ता को इस महत्वपूर्ण शोध और उनकी प्रभावशाली प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई दी। उन्होंने कहा,
“यह शोध डर्माटोलॉजी के क्षेत्र में एक बड़ा योगदान है। यह न केवल मेलाज्मा के नए इलाज के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा, बल्कि किफायती और प्रभावी उपचार विकसित करने में भी मदद करेगा। हमें गर्व है कि एआईआईएमएस गोरखपुर के डॉक्टर इस तरह के महत्वपूर्ण शोध कर रहे हैं।”

